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शुक्रवार, 10 मई 2024

मई १०, विष्णु , श्री श्री, लघुकथा, बाल गीत, माँ, धरती, चित्रगुप्त, नंदिनी-इरावती, मुक्तिका

सलिल सृजन मई १० 

*

विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान के सप्तम सारस्वत अनुष्ठान कला पर्व में आप सबका सस्नेह स्वागत है।
माँ शारदा - माँ भारती को नमन।
ले बसंत के पुष्प माँ, आए तेरे द्वार।
मुकुलित मन सुत सलिल का, नमन करो स्वीकार।।
आज मातृ दिवस पर सभी माताओं को नमन।
लिए मंजरी माल हम, विनत कर रहे भेंट।
अपनी बाँहों में हमें, मैया विहँस समेट।।
माता की छाया तले, बैठे बन मिथिलेश।
बुद्धि विनीता हो सदा, चाह नहीं अवधेश।।
मुख्य अतिथि डॉ. मुकुल तिवारी जी का वंदन।
छाया सक्सेना जी ने कोकिलकंठी स्वर में दीप प्रज्वलन पश्चात् सरस्वती वंदना प्रस्तुत की।
आत्मदीप जलता रहे, ज्योतित रहे हमेश।
शब्दब्रह्म आराध हम, मिलें तुम्हें परमेश।।
संस्कारधानी को अपनी स्वर लहरी से मोह चुकी अर्चना गोस्वामी जी ने "मेघा रे जल भर लाए" प्रस्तुत कर सब को मंत्र मुग्ध कर दिया।
करे अर्चना मधुर स्वर, भाव पुनीता दिव्य
राम सुन रहे लीन हो, भक्ति भाव है भव्य
माननीय मंजरी शर्मा जी ने पाककला का अध्याय खोलते हुए लच्छेदार रबड़ी, मिथिलेश बड़गैया जी ने गुलाब जामुन, आशा नारायण जी ने आइसक्रीम तथा छाया सक्सेना जी ने बिना अंडे का केक बनाने की विधि व चित्र प्रस्तुत कर सबके मुँह में पानी ला दिया।
नृत्य गुरु बिटिया उपासना के निर्देशन में कालजयी कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान की अमर कविता "ये मेरी गोदी की शोभा" पर मौसमी नंदी जी तथा बालिका आराध्या तिवारी ने उत्तम नृत्य प्रस्तुत किया।
आराध्या जिनको कला, गुरु उपासना श्रेष्ठ ।
अभिनंदन मौसमी का, कलाकार है ज्येष्ठ।।
अरुण लिए आलोक आ, जला रहा मणि दीप।
मणि मुक्ता है कला हर, कलाकार हैं सीप।।
तालाबंदी पर संदेशपरक फिलम मुकुल जी के माध्यम से प्रस्तुत की गयी। केरल की नृत्य कला 'कथकळि' की मनोहर नृत्य मुद्राओं और हस्त संचालन की रोचक प्रस्तुति बसंत शर्मा जी के माध्यम से हुई।
नन्हीं प्रशिक्षा रंजन राज पलामू झारखण्ड ने मनोहर नृत्य प्रस्तुति दी।
प्रतिभा बहुत प्रशिक्षा में, मिल हम सकें तराश।
धरती पर पग जमाकर, छू पाए आकाश।।
अभियंता अरुण भटनागर ने वास्तु व् अभियांत्रिकी की समृद्ध विरासत पर जानकारीपूर्ण आलेख प्रस्तुत किया।
वास्तु कला की विरासत, अद्वितीय लें मान।
नव यांत्रिकी के क्षेत्र में, नहीं देश का सान।।
तान्या श्रीवास्तव द्वारा कत्थक नृत्य प्रस्तुति को सबने सराहा।
तान्या कत्थक नृत्य में, है प्रवीण लें मान।
फूँक सके पाषाण में, नृत्य दिखाकर जान।।
लौह तरंग पर अमर चित्रपटीय गीत 'मेरा जूता है जापानी' सुनकर श्रोता झूम उठे।
बोनसाई कला पर सारगर्भित संबोधन बसंत शर्मा जी ने प्रस्तुत किया।
बौने पौधों की कला, बोनसाई लें जान।
मनहर छटा बसंत की, देख झूमिए जान!
बारह मास बसंत की, छटा मंजरी भव्य।
बोनसाई ने दिखा दी, प्रकृति सुंदरी नव्य।।
"यादों के बेतरतीब बिखरे पन्ने" विनीता श्रीवास्तव की कविता की चित्रांकन सहित प्रस्तुति की हेमंत मोहन ने -
यादों के पन्ने लिए, श्री वास्तव में देख
खींच रहे हेमंत स्वर, चित्रांकन से रेख
१०.५.२०२०
***
श्री श्री चिंतन दोहा गुंजन: ७
विषय: विष्णु के अवतार
*
श्री-श्री का प्रवचन सुना, अंतरजाल कमाल।
प्रगटे दोहे समर्पित, स्वीकारें मन-पाल।।
*
दानी में हो अहं तो, वामन बनें विराट।
गुरु होता मोहांध; खो, नैन खड़ी हो खाट।।
*
पितृ कहे से मातृ-वध, कर चाहा वरदान।
फिर जीवित हो माँ, न हो सपने में अपमान।।
*
क्षत्रिय में विप्रत्व के, भार्गव बोते बीज।
अहं-नाश क्षत्रियों का, हुआ गर्व-घट छीज।।
*
राम-श्याम दो छोर हैं, रख दोनों को थाम।
तजा एक को भी अगर, लगे विधाता वाम।।
*
ये जन्मे दोपहर में, वे जन्मे अध रात।
सखा-सखी प्रिय उन्हें हैं, इनको प्रिय पितु -मात।।
*
कल्कि न कल अब में जिए, रखें ज्ञान तलवार।
काटेंगे अज्ञान सर, कर मानव उद्धार।।
*
'श्व' कल बीता-आ रहा, अ-श्व अ-कल 'अब' जान।
कल्कि करें 'अब' नियंत्रित, 'कल' का काट वितान।।
*
सार तत्व गुरु मुख-वचन, त्रुटियाँ मेरा दोष।
लोभ बाँट लूँ सगों से, गुरु वचनामृत-कोष।।
***
एक दोहा
'भली करेंगे राम जू!', कह मनमाना काम.
किया; दंड दे राम ने, कहा: 'भला यह काम.'
१०.५.२०१८, ८.२५,
***
लघुकथा
आग
अफसर पिता की लाडली बिटिया को किसी प्रकार की कमी नहीं थी. जब जो चाह तुरंत मिला गया. बढ़ती उम्र के साथ उसकी जिद भी बढ़ती गयी. माँ टोंकती तो पिता उन्हें चुप करा देते 'बाप के राज में मौज-मस्ती नहीं करेगी तो कब करेगी?
माँ ससुराल और शादी की फ़िक्र करतीं तो पिता कह देते जिसकी सौ बार गरज होगी, नाक रगड़ता हुआ आएगा देहलीज पर और मैं अपनी शर्तों पर बिटिया को रानी बनाकर भेजूँगा.
समय पर किसका वश? अनियमित खान-पान ने पिता को काल का ग्रास बना दिया. अफसरी का रौब-दाब समाप्त होते दो दिन न लगे. जो दिन-रात सलाम बजाते नहीं थकते थे, वही उपहास की दृष्टि से देखने लगे. शोक की अवधि समाप्त होते ही माँ-बेटी अपने पैतृक घर में आ गयीं. सगे-संबंधी जमीन-जायदाद में हिस्सा देने में आनाकानी करने लगे. साहब ने अपने रहते कभी ध्यान ही नहीं दिया, न कोई जानकारी दी पत्नि या बेटी को.
बाबूराज की महिमा अपरम्पार... पेंशन की नस्ती जिस मेज पर जाती उस बाबू को याद आता की कब-कब उसे डपटा गया था और वह नस्ती को दबा कर बैठ जाता. साल-दर-साल बीतने लगे... किसी प्रकार ले-देकर पेंशन आरम्भ हो सकी.
बिटिया जिद्दी और फिजूलखर्च और पार्टी करने की शौक़ीन थी. माँ के समझाने का असर कुछ दिन रहता फिर वही ढाक के तीन पात.
मुसीबत अकेले नहीं आती. माँ को सदमे और चिंताओं ने तो घेर ही लिया था. कोढ़ में खाज यह कि डोक्टर ने असाध्य बीमारी का रोगी बता दिया. अत्यंत मँहगी चिकित्सा. मरता क्या न करता ? जमा -पूँजी खर्च कर माँ को बचाने में जुट गयी वह. मौज-मस्ती के साथी उससे जो चाहते थे वह करने से बेहतर उसे मर जाना लगता. बस चलता तो ऐसे मतलबपरस्तों को ठिकाने लगा देती वह पर समय की नजाकत को देखते हुए उसे हर कदम फूँक-फूँक कर रखना था.
देर रात अस्पताल से घर आयी और आग जलाकर ठण्ड भगाने बैठी तो उसे लगा वह खुद भी सुलग रही है. समय ने भले ही उससे पिता का साया और माँ की गोद से वंचित कर दिया है पर वह हार नहीं मानेगी. अपने दोनों पैरों में पिता और हाथों में माँ का सम्बल है उसके पास. अपने पैरों को जमीन पर टिका कर वह न केवल मुसीबतों से जूझेगी बल्कि सफलता के आसमान को भी छुएगी. आत्मविश्वास ने उसमें ऊर्जा का संचार किया और वह आग के सामने जा बैठी पिता-माँ के आशीष की अनुभूति करने घुटनों पर हाथ और सर रखकर. कल के संघर्ष के लिए उसके तन को करना था विश्राम और मन को जलाए रखनी आग.
***
दोहा मुक्तिका
*
असत जीत गौतम हुए ब्रम्ह जीत जिस प्रात
पैर जमाने की हुई भर उड़ान शुरुआत
*
मोह-माधुरी लुटाकर गिरिधारी थे मस्त
चैन गँवाकर कंस ने तत्क्षण पाई मात
*
सुन बृजेंद्र की वंदना, था सुरेंद्र बेचैन
पार न लेकिन पा सका, जी भर कर ली घात
*
वास्तव में श्री मनोरमा, चेतन सदा प्रकाश
मीठी वाणी बोल तू, सूरज करे प्रभात
*
चंद्र किरण लख कुमुद को, उतर धरा पर मौन
पूनम बैठी शैल पर, करे रात में प्रात
१०-५-२०१७
***
बाल गीत
*
सबसे ज्यादा अच्छा लगता -
अपनी माँ का मुखड़ा!
सुबह उठाती गले लगाकर,
नहलाती है फिर बहलाकर,
आँख मूँद, कर जोड़ पूजती ,
प्रभु को सबकी कुशल मनाकर. ,
देती है ज्यादा प्रसाद फिर
सबकी नजर बचाकर.
आँचल में छिप जाता मैं ज्यों
रहे गाय सँग बछड़ा.
सबसे ज्यादा अच्छा लगता -
अपनी माँ का मुखड़ा.
बारिश में छतरी आँचल की ,
ठंडी में गर्मी दामन की.,
गर्मी में साड़ी का पंखा-,
पल्लू में छाया बादल की !
दूध पिलाती है गिलास भर -
कहे बनूँ मैं तगड़ा. ,
सबसे ज्यादा अच्छा लगता -
अपनी माँ का मुखड़ा!
***
माँ को अर्पित चौपदे:
बारिश में आँचल को छतरी, बना बचाती थी मुझको माँ.
जाड़े में दुबका गोदी में, मुझे सुलाती थी गाकर माँ..
गर्मी में आँचल का पंखा, झलती कहती नयी कहानी-
मेरी गलती छिपा पिता से, बिसराती थी मुस्काकर माँ..
*
मंजन स्नान आरती थी माँ, ब्यारी दूध कलेवा थी माँ.
खेल-कूद शाला नटख़टपन, पर्व मिठाई मेवा थी माँ..
व्रत-उपवास दिवाली-होली, चौक अल्पना राँगोली भी-
संकट में घर भर की हिम्मत, दीन-दुखी की सेवा थी माँ..
खाने की थाली में पानी, जैसे सबमें रहती थी माँ.
कभी न बारिश की नदिया सी कूल तोड़कर बहती थी माँ..
आने-जाने को हरि इच्छा मान, सहज अपना लेती थी-
सुख-दुःख धूप-छाँव दे-लेकर, हर दिन हँसती रहती थी माँ..
*
गृह मंदिर की अगरु-धूप थी, भजन प्रार्थना कीर्तन थी माँ.
वही द्वार थी, वातायन थी, कमरा परछी आँगन थी माँ..
चौका बासन झाड़ू पोंछा, कैसे बतलाऊँ क्या-क्या थी?-
शारद-रमा-शक्ति थी भू पर, हम सबका जीवन धन थी माँ..
*
कविता दोहा गीत गजल थी, रात्रि-जागरण चैया थी माँ.
हाथों की राखी बहिना थी, सुलह-लड़ाई भैया थी माँ.
रूठे मन की मान-मनौअल, कभी पिता का अनुशासन थी-
'सलिल'-लहर थी, कमल-भँवर थी, चप्पू छैंया नैया थी माँ..
*
आशा आँगन, पुष्पा उपवन, भोर किरण की सुषमा है माँ.
है संजीव आस्था का बल, सच राजीव अनुपमा है माँ..
राज बहादुर का पूनम जब, सत्य सहाय 'सलिल' होता तब-
सतत साधना, विनत वन्दना, पुण्य प्रार्थना-संध्या है माँ..
*
माँ निहारिका माँ निशिता है, तुहिना और अर्पिता है माँ
अंशुमान है, आशुतोष है, है अभिषेक मेघना है माँ..
मन्वंतर अंचित प्रियंक है, माँ मयंक सोनल सीढ़ी है-
ॐ कृष्ण हनुमान शौर्य अर्णव सिद्धार्थ गर्विता है माँ
***
एक कविता
धरती
*
धरती काम करने
कहीं नहीं जाती
पर वह कभी भी
बेकाम नहीं होती.
बादल बरसता है
चुक जाता है.
सूरज सुलगता है
ढल जाता है.
समंदर गरजता है
बँध जाता है.
पवन चलता है
थम जाता है.
न बरसती है,
न सुलगती है,
न गरजती है,
न चलती है
लेकिन धरती
चुकती, ढलती,
बंधती या थमती नहीं.
धरती जन्म देती है
सभ्यता को,
धरती जन्म देती है
संस्कृति को.
तभी ज़िंदगी
बंदगी बन पाती है.
धरती कामगार नहीं
कामगारों की माँ होती है.
इसीलिये इंसानियत ही नहीं
भगवानियत भी
उसके पैर धोती है..
***
गीत:
माँ
*
माँ!
मुझे शिकवा है तुझसे
क्यों बनी अबला रही?
सत्य है यह
खा-कमाती,
सदा से सबला रही.
*
खुरदरे हाथों से टिक्कड़
नोन के संग जब दिए.
लिए चटखारे सभी ने,
साथ मिलकर खा लिए.
तूने खाया या न खाया
कौन कब था पूछता?
तुझमें भी इंसान है
यह कौन-कैसे बूझता?
यंत्र सी चुपचाप थी क्यों
आँख क्यों सजला रही?
माँ!
मुझे शिकवा है तुझसे
क्यों बनी अबला रही?
*
काँच की चूड़ी न खनकी,
साँस की सरगम रुकी.
भाल पर बेंदी लगाई,
हुलस कर किस्मत झुकी.
बाँट सपने हमें अपने
नित नया आकाश दे.
परों में ताकत भरी
श्रम-कोशिशें अहिवात दे.
शिव पिता की है शिवा तू
शारदा-कमला रही?
माँ!
मुझे शिकवा है तुझसे
क्यों बनी अबला रही?
*
इंद्र सी हर दृष्टि को
अब हम झुकाएँ साथ मिल.
ब्रम्ह को शुचिता सिखायें
पुरुष-स्त्री हाथ मिल.
राम को वनवास दे दें
दु:शासन का सर झुके.
दीप्ति कुल की बने बेटी
संग हित दीपक रुके.
सचल संग सचला रही तू
अचल संग अचला रही.
माँ!
मुझे शिकवा है तुझसे
क्यों बनी अबला रही?
***
मातृदिवस पर गीत :
माँ जी हैं बीमार...
*
माँ जी हैं बीमार...
*
प्रभु! तुमने संसार बनाया.
संबंधों की है यह माया..
आज हुआ है वह हमको प्रिय
जो था कल तक दूर-पराया..
पायी उससे ममता हमने-
प्रति पल नेह दुलार..
बोलो कैसे हमें चैन हो?
माँ जी हैं बीमार...
*
लायीं बहू पर बेटी माना.
दिल में, घर में दिया ठिकाना..
सौंप दिया अपना सुत हमको-
छिपा न रक्खा कोई खज़ाना.
अब तो उनमें हमें हो रहे-
निज माँ के दीदार..
करूँ मनौती, कृपा करो प्रभु!
माँ जी हैं बीमार...
*
हाथ जोड़ कर करूँ वन्दना.
प्रभुजी! सुनिए नम्र प्रार्थना
तन-मन से सेवा करती हूँ
सफल कीजिए सकल साधना..
चैन न लेने दूँगी, तुमको
जग के तारणहार.
स्वास्थ्य लाभ दो मैया को हरि!
हों न कभी बीमार..
***
बाल कविता :
भय को जीतो
*
बहुत पुरानी बात है मित्रों!
तब मैं था छोटा सा बालक।
सुबह देर से उठना
मन को भाता था।
ग्वाला लाया दूध
मिला पानी तो
माँ ने बंद कर दिया
लेना उससे।
निकट खुली थी डेरी
कहा वहीं से लाना।
जाग छह बजे
निकला घर से
डेरी को मैं
लेकर आया दूध
मिली माँ से शाबाशी।
कुछ दिन बाद
अचानक
काला कुत्ता आया
मुझे देख भौंका
डर कर
मैं पीछे भागा।
सज्जन एक दिखे तो
उनके पीछे-पीछे गया,
देखता रहा
न कुत्ता तब गुर्राया।
घर आ माँ को
देरी का कारण बतलाया
माँ बोली:
'जो डरता है
उसे डराती सारी दुनिया।
डरना छोड़ो,
हिम्मत कर
मारो एक पत्थर।
तब न करेगा
कुत्ता पीछा।
अगले दिन
हिम्मत कर मैंने
एक छड़ी ली और
जेब में पत्थर भी कुछ।
ज्यों ही कुत्ता दिखा
तुरत मारे दो पत्थर।
भागा कालू पूँछ दबा
कूँ कूँ कूँ कूँ कर।
घर आ माँ को
हाल बताया
माँ मुस्काई,
सर सहलाया
बोली: 'बनो बहादुर तब ही
दुनिया देगी तुम्हें रास्ता।'
***
प्रो. श्यामलाल उपाध्याय कोलकाता के प्रति भावांजलि:
*
हिंदी माँ के पूत लाडले श्यामलाल जी
जगभाषा के दूत बावले श्यामलाल जी
.
है बुलंद आवाज़ पहुँचती सीधे दिल तक
सतत सृअजं करते है हर दिन दिन ढलने तक
पिंगल और व्याकरण पर अधिकार एक सा
स्वप्न करें साकार नया सपना पलने तक
.
अपनेपन का मानी दुनिया इनसे पूछे
इतनी ऊर्जा पाई कहाँ से, कैसे बूझे?
कतिहं कार्य भी बहुत सहजता से करते हैं
हे मुश्किल का हल क्या जाने कैसे सूझे?
.
नहीं श्याम मन नहीं लाल पर श्याम लाल हैं
बसे कोलकाता में ये सचमुच कमाल हैं
वार्धक्य को बने चुनौती शब्द-सिपाही
निर्मल-निश्छल-सहज, शांत करते धमाल हैं
.
अट्टहास जो सुने बिसारे चिंता सारी
शरद अनुष्ठान नित करते, धुनी पुजारी
बने विश्ववाणी हिंदी यह शुभ इच्छा ले-
श्वास-श्वास से हिंदी की आरती उतारी
.
'सलिल' धन्य वन्दन कर, पा आशीष आपसे
खोजे मिलते नहीं शब्द-ऋषि अन्य आपसे
सम्मानित सम्मान हुए कर कमलों जाकर
करें अनुकरण, सीख सकें कुछ सबक आपसे
.
हम बडभागी वन्दन कर श्री श्यामलाल जी
अर्पित चन्दन-कुंकुम-अक्षत श्यामलाल जी
१०-५-२०१५
***
दोहा
श्वास-श्वास माँ से मिली, ममता है उपहार
शब्द ब्रम्ह की साधना, हिंदी माँ का प्यार.
१०-५-२०१५
***
गीत
कनक पात्र का सत्य अनावृत्त हो न जाए ढाँका करता हूँ
*
अटल सत्य गत-आगत फिसलन-मोड़ मिलाएंगे फ़िर हमको
किसके नयनों में छवि किसकी कौन बताये रही समाई
वहीं सृजन की रची पटकथा विधना ने चुपचाप हुलसकर
संचय अगणित गणित हुआ ज्यों ध्वनि ने प्रतिध्वनि थी लौटाई
मौन मगन हो सतनारायण के प्रसाद में मिली पँजीरी
अँजुरी में ले बुक्का भर हो आनंदित फाँका करता हूँ
*
खुदको तुममें गया खोजने जब तब पाया खुदमेँ तुमको
किसे ज्ञात कब तुम-मैं हम हो सिहर रहे थे अँखियाँ मीचे
बने सहारा जब चाहा तब अहम सहारा पा नतमस्तक
हुआ और भर लिया बाँह में खुदको खुदने उठ-झुक नीचे
हो अवाक मन देख रहा था कैसे शून्य सृष्टि रचता है
हार स्वयं से, जीत स्वयं को नव सपने आँका करता हूँ
*
चमका शुक्र हथेली पर हल्दी आकर चुप हुई विराजित
पुरवैया-पछुआ ने बन्ना-बन्नी गीत सुनाये भावन
गुण छत्तीस मिले थे उस पल, जिस पल पलभर नयन मिले थे
नेह नर्मदा छोड़ मिली थी, नेह नर्मदा मन के आँगन
पाकर खोना, खोकर पाना निमिष मात्र में जान मनीषा
मौन हुई, विश्वास सितारे मन नभ पर टाँका करता हूँ
*
आस साधना की उपासना करते उषा हुई है संध्या
रजनी में दोपहरी देखे चाहत, राहत हुई पराई
मृगमरीचिका को अनुरागा, दौड़ थका तो भुला विकलता
मन देहरी सँतोष अल्पना की कर दी हँसकर कुड़माई
सुधियों के दर्पण में तुझको, निरखा थकन हुई छूमंतर
कलकल करती 'सलिल'-लहर में, छवि तेरी झाँका करता हूँ
१०-५-२०१४
***
गीत
*
अटल सत्य गत-आगत फिसलन-मोड़ मिलाएंगे फ़िर हमको
किसके नयनों में छवि किसकी कौन बताये रही समाई
वहीं सृजन की रची पटकथा विधना ने चुपचाप हुलसकर
संचय अगणित गणित हुआ ज्यों ध्वनि ने प्रतिध्वनि थी लौटाई
मौन मगन हो सतनारायण के प्रसाद में मिली पँजीरी
अँजुरी में ले बुक्का भर हो आनंदित फाँका करता हूँ
*
खुदको तुममें गया खोजने जब तब पाया खुदमेँ तुमको
किसे ज्ञात कब तुम-मैं हम हो सिहर रहे थे अँखियाँ मीचे
बने सहारा जब चाहा तब अहम सहारा पा नतमस्तक
हुआ और भर लिया बाँह में खुदको खुदने उठ-झुक नीचे
हो अवाक मन देख रहा था कैसे शून्य सृष्टि रचता है
हार स्वयं से, जीत स्वयं को नव सपने आँका करता हूँ
*
चमका शुक्र हथेली पर हल्दी आकर चुप हुई विराजित
पुरवैया-पछुआ ने बन्ना-बन्नी गीत सुनाये भावन
गुण छत्तीस मिले थे उस पल, जिस पल पलभर नयन मिले थे
नेह नर्मदा छोड़ मिली थी, नेह नर्मदा मन के आँगन
पाकर खोना, खोकर पाना निमिष मात्र में जान मनीषा
मौन हुई, विश्वास सितारे मन नभ पर टाँका करता हूँ
*
आस साधना की उपासना करते उषा हुई है संध्या
रजनी में दोपहरी देखे चाहत, राहत हुई पराई
मृगमरीचिका को अनुरागा, दौड़ थका तो भुला विकलता
मन देहरी सँतोष अल्पना की कर दी हँसकर कुड़माई
सुधियों के दर्पण में तुझको, निरखा थकन हुई छूमंतर
कलकल करती 'सलिल'-लहर में, छवि तेरी झाँका करता हूँ
१०-५-२०१४
***
चित्रगुप्त जयंती पर विशेष रचना:
मातृ वंदना
*
ममतामयी माँ नंदिनी, करुणामयी माँ इरावती.
सन्तान तेरी मिल उतारें, भाव-भक्ति से आरती...
*
लीला तुम्हारी हम न जानें, भ्रमित होकर हैं दुखी.
सत्पथ दिखाओ माँ, बनें सन्तान सब तेरी सुखी..
निर्मल ह्रदय के भाव हों, किंचित न कहीं अभाव हों-
सात्विक रहें आचार, पायें अंत में हम सद्गति...
*
कुछ काम जग के आ सकें, महिमा तुम्हारी गा सकें.
सत्कर्म कर आशीष मैया!, पुत्र तेरे पा सकें..
निष्काम रह, निस्वार्थ रह, सब मोक्ष पायें अंत में-
निर्मल रहें मन-प्राण, रखना माँ! सदा निश्छल मति...
*
चित्रेश प्रभु की कृपा मैया!, आप ही दिलवाइए.
जैसी भी है सन्तान तेरी है, न अब ठुकराइए..
आशीष दो माता! 'सलिल', कंकर से शंकर बन सकें-
कर सफल मम साधना माँ!, पद-पद्म में होवे रति...
***
मुक्तिका:
तुम क्या जानो
*
तुम क्या जानो कितना सुख है दर्दों की पहुनाई में.
नाम हुआ करता आशिक का गली-गली रुसवाई में..
उषा और संझा की लाली अनायास ही साथ मिली.
कली कमल की खिली-अधखिली नैनों में, अंगड़ाई में..
चने चबाते थे लोहे के, किन्तु न अब वे दाँत रहे.
कहे बुढ़ापा किससे क्या-क्या कर गुजरा तरुणाई में..
सरस परस दोहों-गीतों का सुकूं जान को देता है.
चैन रूह को मिलते देखा गजलों में, रूबाई में..
'सलिल' उजाला सभी चाहते, लेकिन वह खलता भी है.
तृषित पथिक को राहत मिलती अमराई - परछाँई में
१०-५-२०११
***
मुक्तिका
कुछ हवा दो अधजली चिंगारियाँ फिर बुझ न जाएँ.
शोले जो दहके वतन के वास्ते फिर बुझ न जाएँ.
*
खुद परस्ती की सियासत बहुत कर ली, रोक दो.
लहकी हैं चिंगारियाँ फूँको कि वे फिर बुझ न जाएँ.
*
प्यार की, मनुहार की,इकरार की,अभिसार की
मशालें ले फूँक दो दहशत,कहीं फिर बुझ न जाएँ.
*
ज़हर से उतरे ज़हर, काँटे से काँटा दो निकाल.
लपट से ऊँची लपट करना सलिल फिर बुझ न जाएँ.
*
सब्र की हद हो गयी है, ज़ब्र की भी हद 'सलिल'
चिताएँ उनकी जलाओ इस तरह फिर बुझ न जाएँ
***
माँ की सुधियाँ
पुरवाई सी....
*
तन पुलकित मन प्रमुदित करतीं माँ की सुधियाँ पुरवाई सी
तुमको खोकर खुद को खोया, संभव कभी न भरपाई सी ...
*
दूर रहा जो उसे खलिश है तुमको देख नहीं वह पाया.
निकट रहा मैं लेकिन बेबस रस्ता छेक नहीं मैं पाया..
तुम जाकर भी गयी नहीं हो, बस यह है इस बेटे का सच.
साँस-साँस में बसी तुम्हीं हो, आस-आस में तुमको पाया..
चिंतन में लेखन में तुम हो, शब्द-शब्द सुन हर्षाई सी.
तुमको खोकर खुद को खोया, संभव कभी न भरपाई सी ...
*
तुम्हें देख तुतलाकर बोला, 'माँ' तुमने हँस गले लगाया.
दौड़ा गिरा बिसूरा मुँह तो, उठा गुदगुदा विहँस हँसाया..
खुशी न तुमने खुद तक रक्खी, मुझसे कहलाया 'पापा' भी-
खुशी लुटाने का अनजाने, सबक तभी माँ मुझे सिखाया..
लोरी भजन आरती कीर्तन, सुन-गुन धुन में छवि पाई सी.
तुमको खोकर खुद को खोया, संभव कभी न भरपाई सी ...
*
भोर-साँझ, त्यौहार-पर्व पर, हुलस-पुलकना तुमसे पाया.
दुःख चुप सह, सुख सब संग जीना, पंथ तुम्हारा ही अपनाया..
आँसू देख न पाए दुनिया, पीर चीर में छिपा हास दे-
संकट-कंटक को जय करना, मन्त्र-मार्ग माँ का सरमाया.
बन्ना-बन्नी, होरी-गारी, कजरी, चैती, चौपाई सी.
तुमको खोकर खुद को खोया, संभव कभी न भरपाई सी ...
*
गुदड़ी, कथरी, दोहर खो, अपनों-सपनों का साथ गँवाया..
चूल्हा-चक्की, कंडा-लकड़ी, फुंकनी सिल-लोढ़ा बिसराया.
नथ, बेन्दा, लंहगा, पायल, कंगन-सज करवाचौथ मनातीं-
निर्जल व्रत, पूजन-अर्चन कर, तुमने सबका क्षेम मनाया..
खुद के लिए न माँगा कुछ भी, विपदा सहने बौराई सी.
तुमको खोकर खुद को खोया, संभव कभी न भरपाई सी ...
*
घूँघट में घुँट रहें न बिटियाँ, बेटा कहकर खूब पढाया.
सिर-आँखों पर जामाता, बहुओं को बिटियों सा दुलराया.
नाती-पोते थे आँखों के तारे, उनमें बसी जान थी-
'उनका संकट मुझको दे', विधना से तुमने सदा मनाया.
तुम्हें गँवा जी सके न पापा, तुम थीं उनकी परछाईं सी.
तुमको खोकर खुद को खोया, संभव कभी न भरपाई सी ...
१०-५-२०१०

* 

गुरुवार, 9 मई 2024

मई ९, दोहा, रवीन्द्रनाथ, छंद संपदा, छंद मोहन, लघुकथा, यमक, कोरोना, सॉनेट धतूरा,

सलिल सृजन मई ९
*
सॉनेट
काम क्रोध लोभ
*
काम क्रोध लोभ मोह, घात द्रोह रोज करें,
तब ही राजनीति में, उत्तम कहलाएँगे,
छल-फरेब झूठ दगा, नित्य आजमाएँगे,
येन-केन लाभ वरें, वायदे न याद करें।
चीन्ह-चीन्ह रेवड़ी बाँट-बाँट जीत वरें,
जाँच-जेल अस्त्र-शस्त्र साध कर चलाएँगे,
पक्ष में विपक्ष मिला, अँगूठा दिखाएँगे,
सात पुश्त भोग सके, घूस माँग जोड़ धरें।
देश की न फिक्र, जिक्र भाषणों में काफी है,
नोट बाँट वोट माँग, बनेंगे ईमानदार,
पूँजीपति-अफसरों के काम खूब आएँगे।
आप ध्वजाधारी यदि सौ खून माफी है,
चमचों से कहें हमें आप से है खूब प्यार,
जीत लें चुनाव फिर न लोग देख पाएँगे।
९.५.२०२४
***
धतूरा
*
गुणकारी है धतूरा, मातुल कनक न भूल।
करता है उन्मत्त यह, खिलते सुंदर फूल।१।
*
सोलेनशिआ सुनाम है, अरबी में दातूर।
थॉर्न एप्पल इंग्लैंड में, फारस में तातूर।२।
*
सुश्रुत-चरक थे सुपरिचित, जान सके गुण-धर्म।
गणना की विष वर्ग में, लक्ष्य चिकित्सा कर्म।३।
*
कद पौधे का तीन फुट, हरे नुकीले पर्ण।
पुष्प पाँच इंची खिलें, पर्पल-श्वेत विवर्ण।४।
*
काँटों सज्जित गोल फल, चपटे भूरे बीज।
वृक्काकारी श्याम भी, चुभें शूल हो खीझ।५।
*
मिलता हायोसायमिन, हायोसीन सुक्षार।
राल-तेल भी प्राप्त हो, जहँ-तहँ उगे उदार।६।
*
अग्नि वायु मद दे बढ़ा, करे लीख-जूँ नष्ट।
ज्वर कृमि खुजली कोढ़ कफ, व्रण के हरता कष्ट।७।
*
रूखा भ्रमकारी बहुत, कड़वा भी लें मान।
श्वास नली के रोग में, बहु उपयोगी जान।८।
*
नित्य बीज दो खाइए, सिर-पीड़ा हो दूर।
स्तन सूजे बाँधें तुरत, पत्ते गर्म हुजूर।९।
*
गाँठें हो स्तन में अगर, दूध अधिक हो तात।
ताजा पत्ते बाँधिए, मिले व्याधि को मात।१०।
*
राइ-तेल में चौगुना, पत्तों का रस डाल।
पका लगाएँ जूँ मिटे, श्याम स्वस्थ हो बाल।११।
*
पित्त पापड़ा अर्क में, बीज धतूरा श्याम।
घोंट पिएँ उन्माद हो, शांत मिले आराम।१२।
*
बीज धतूरा में मिला, काली मिर्च समान।
पानी ले करिए खरल, गोली बना सुजान।१३ अ।
सूर्य-ताप आघात या, प्रसव जनित उन्माद।
रत्ती भर मक्खन सहित, देकर करें निदान।१३ आ।
*
नेत्र दुखें यदि हो सखे!, शोथ-दाह से लाल।
पत्तों का रस लेपिए, दुःख हो दूर कमाल।१४।
*
पत्ते फल शाखा सुखा, कूट बनाएँ चूर्ण।
धूम्रपान से दूर हो, श्वास रोग संपूर्ण।१५।
*
अधसूखे पत्ते उठा, टुकड़े रत्ती चार।
ले बीड़ी पी लीजिए, हों न दमा-बीमार।१६।
*
बीज तमाखू जवांसा, अपामार्ग समभाग।
चूर्ण चिलम में पिएँ हो, दमा दूर बड़भाग।१७।
*
चूर्ण, धतूरा तमाखू, शोरा काली चाय।
ले समान बीड़ी पिएँ, रोके दमा उपाय।१८।
*
हैजे का उपचार है, उत्तम फूल-पराग।
रखें बतासे में निगल, हैजा मिटे सुभाग।१९।
*
फल चूरन घी शहद दें, चटा गर्भ हित आप।
लें चौथाई ग्राम ही, हर्ष सके तब व्याप।२०।
*
पर्ण फूल फल शाख जड़, मिला पका तिल-तेल।
मलें वात खुजली मिटे, व्यर्थ न पीड़ा झेल।२१।
*
सत दें आधा ग्रेन यदि, तीन बार नित आप।
अस्थि जोड़ पीड़ा नहीं, सके आपको व्याप।२२।
*
पर्ण धतूरा लेपिए, बाँधें पुलटिस रोज।
हड्डी-पीड़ा दूर हो, हो चेहरे पर ओज।२३।
*
पर्ण पीसकर मिला लें, शिलाजीत कर लेप।
अंडकोश फुफ्फुस उदर, सूजन हो विक्षेप।२४।
*
बीज धतूरा अकरकस, लौंग वटी खा नित्य।
काम साधना कीजिए, हो आनंद अनित्य।२५।
*
तेल धतूरा बीज का, तलवों पर मल रात।
करें प्रिया-सहवास हो, स्तंभन बहु भाँत।२६।
*
पीस धतूरा बीज-फल, मिला दूध में मीत।
दही जमा घी निकालें, रखें पान में रीत।२६ अ।
खाएँ बाजीकरण हो, मलें शिथिलता दूर।
हो कामेन्द्रिय की मिले, सुखानंद भरपूर।२६ आ।
*
दूषित जल पी रोग हो, नारू कृमि दे पीर।
पत्तों को लें बाँध हो, कष्ट दूर दर धीर।२७।
*
सुबह-शाम सेवन करें, बीज जलाकर राख।
हो मलेरिया दूर झट, लगे न ज्वर को पाख।२८।
*
चूर्ण बीज का खाइए, ज्वर आने के पूर्व।
ज्वर को दूर भगाइए, हो आराम अपूर्व।२९।
*
पान धतूरा पर्ण अरु, काली मिर्ची पीस।
वटी बना खा ज्वर मिटे, रहें निपोरे खीस।३० अ।
सौंफ अर्क के साथ खा, करिए दूर प्रमेह।
है इलाज यह शर्तिया, तनिक नहीं संदेह।३० आ।
*
दही-पर्ण रस का करें, सेवन फिर विश्राम।
रोग तिजारी का मिटे, झट मिलता आराम।३१।
*
पत्तों की लुगदी बना, बाँध दीजिए घाव।
बिच्छू-काटा ठीक हो, पार लग सके नाव।३२।
*
पीप घाव की धोइए, जल ले थोड़ा गर्म।
पत्ता पुलटिस बाँधिए, पीर मिटे हो नर्म।३३।
*
कर्ण शोथ हो लगाएँ, रस गाढ़ा रह मौन।
सूजन-पीड़ा घटे सब, पूछें पीड़ित कौन।३४।
*
हो मवाद यदि कान में, गंधक सरसों-तेल।
पर्ण धतूरा-रस मिला, डालें मिटे झमेल।३५।
*
हल्दी पीसें लें मिला, रस धतूर तिल-तेल।
पका छान ले लगा हो, कर्ण नाड़ी व्रण खेल।३६।
*
पत्ते-फूल कपास से, हो धतूर-विष शांत।
देन ठंडा निर्यास हो, चित्त तनिक नहिं भ्रांत।३७।
*
विष धतूर मात्रा अधिक, कर दे सुन्न शरीर।
हो खुश्की सिर दर्द भी, फिर बेहोशी पीर।३८ अ।
करिए बाह्य प्रयोग ही, मात्रा कम ही ठीक।
सावधान हो सजग भी, 'सलिल' न तजिए लीक।३८ आ।
***
आभार- आयुर्वेद जड़ी बूटी रहस्य, भाव प्रकाश, भेषज्य रत्नावली
सॉनेट
धतूरा
*
सदाशिव को है 'धतूरा' प्रिय।
'कनक' कहते हैं चरक इसको।
अमिय चाहक को हुआ अप्रिय।।
'उन्मत्त' सुश्रुत कहें; मत फेंको।।
.
तेल में रस मिला मलिए आप।
शांत हो गठिया जनित जो दर्द।
कुष्ठ का भी हर सके यह शाप।।
मिटाता है चर्म रोग सहर्ष।।
.
'स्ट्रामोनिअम' खाइए मत आप।
सकारात्मक ऊर्जा धन हेतु।
चढ़ा शिव को, मंत्र का कर जाप।
पार भव जाने बनाएँ सेतु।।
.
'धुस्तूर' 'धत्तूरक' उगाता बाल।
फूल, पत्ते, बीज,जड़ अव्याल।।
१७-२-२०२३
...
क्षणिका
धतूरा
.
महक छटा से
भ्रमित हो
अमृत न मानो।
विष पचाना सीख लो
तब मीत जानो।
मैं धतूरा
सदाशिव को
प्रिय बहुत हूँ।
विरागी हूँ,
मोह-माया से रहित हूँ।
...
सॉनेट
आओ सीताराम रमैया
आभा जीवन में बिखराओ
ओम बना पतवार खिवैया
भव भय मन से दूर भगाओ
सफल साधना हो जब तुम में
दिखे मोहिनी छवि कान्हा की
मन संजीवित हो ऋषि हम में
भरमा सके न छवि माया की
आओ, आकर कहीं न जाओ
जब लौं तुम तब लौं मन हर्षित
राम राम कर, हाल सुनाओ
तुम बिन मन कैसे हो प्रमुदित
जागेश्वर जू हमें जगाओ
फिर न जगाओ अगर सुलाओ
९-५-२०२३
•••
सॉनेट
चाह
चाह रहा मन भोग लगाए
जो पाया वह सब है जूठा
खट्टा तीखा फीका मीठा
कहाँ मिले जो कोई न खाए?
करूँ समर्पित पेय तुम्हें कुछ
खोजा लेकिन हार गया फिर
पिया जा चुका पहले ही सब
गया निराशा से मन ही बुझ।
सुमन चढ़ाऊँ किंतु पूर्व ही
किए समर्पित नभ को भू ने
छंद वाक् भी हैं न अछूते
छला गया मन प्रभु! खुद से ही
चाह अधूरी विकल कर रही
ग्रहण करो प्रभु! यही अछूती
९-५-२०२२
•••
द्विपदी
नहीं है दूरदर्शी नीति-नेता
सिसकते घाव युग युग तक कहेंगे
९-५-२०२१
***
भाई जयप्रकाश जी के लिए -
गीत
*
काहे को रोना?, कोरोना आया है तो जाएगा भी
आदम पृथा पुत्र नभ बेटा, तुझे जीतकर गाएगा भी.....
*
सूर्य तनय हम सघन तिमिर में, जलकर जय प्रकाश की गाते
हों निराश क्यों?, पवनपुत्र के वारिस संजीवनि ले आते
सलिल-धार सिर धार सदाशिव, सर्प शशीश धरें निर्भय हो
को विद?, पूछ रहा है कोविद, कुछ खोकर कुछ पाएगा भी
नेह नर्मदा नित्य नहाकर, लहर-लहर लहराएगा भी....
*
एक आत्म दो कर्ण नेत्र त्रय, कर-पग चार, पाँच हैं नाते
षडरागी हम सप्त सुरों में, अष्ट अंग नव ग्रह संग गाते
दस इंद्रिय ग्यारह रुद्रों सम, द्वादश रवि धनतेरस-तेरहीं
रूप चौदशी आत्म दीप राजिव शतदल खिल पाएगा भी
सफल साधना नव आशा पुष्पा उपवन सुषमाएगा भी.....
*
जय प्रकाश की बोल बढ़ें जब, 'मावस भी पूनम बन जाए
ओम व्योम में गुंजित हो यदि, मन मंदिर में प्रभु मुसकाए
श्वास ग्रंथ के नवल पृष्ठ पर, आस कलम नित गीत लिख रही
अलंकार रस छंद भावमय कथ्य हृदय छू जाएगा ही
गीत प्रीत की रीत निभाने, मीत ध्वजा फहराएगा ही
९-५-२०२०
***
एक दोहा
गंगा के वट निरखते, सलिल पखारे पैर।
केवट पी भव समुद को, पार कर गया तैर।।
***
यमकीय दोहा
कहा वेद ने वेदने, मनोरमा है नाम
मनो रमा मन रमा में, भूल राम का नाम
गीत
*
काहे को रोना?, कोरोना आया है तो जाएगा भी
आदम पृथा पुत्र नभ बेटा, तुझे जीतकर गाएगा भी.....
*
सूर्य तनय हम सघन तिमिर में, जलकर जय प्रकाश की गाते
हों निराश क्यों?, पवनपुत्र के वारिस संजीवनि ले आते
सलिल-धार सिर धार सदाशिव, सर्प शशीश धरें निर्भय हो
को विद?, पूछ रहा है कोविद, कुछ खोकर कुछ पाएगा भी
नेह नर्मदा नित्य नहाकर, लहर-लहर लहराएगा भी....
*
एक आत्म दो कर्ण नेत्र त्रय, कर-पग चार, पाँच हैं नाते
षडरागी हम सप्त सुरों में, अष्ट अंग नव ग्रह संग गाते
दस इंद्रिय ग्यारह रुद्रों सम, द्वादश रवि धनतेरस-तेरहीं
रूप चौदशी आत्म दीप राजिव शतदल खिल पाएगा भी
सफल साधना नव आशा पुष्पा उपवन सुषमाएगा भी.....
*
जय प्रकाश की बोल बढ़ें जब, 'मावस भी पूनम बन जाए
ओम व्योम में गुंजित हो यदि, मन मंदिर में प्रभु मुसकाए
श्वास ग्रंथ के नवल पृष्ठ पर, आस कलम नित गीत लिख रही
अलंकार रस छंद भावमय कथ्य हृदय छू जाएगा ही
गीत प्रीत की रीत निभाने, मीत ध्वजा फहराएगा ही
९-५-२०२०
***
पूजा गीत
रवीन्द्रनाथ ठाकुर
*
जीवन जखन छिल फूलेर मतो
पापडि ताहार छिल शत शत।
बसन्ते से हत जखन दाता
रिए दित दु-चारटि तार पाता,
तबउ जे तार बाकि रइत कत
आज बुझि तार फल धरेछे,
ताइ हाते ताहार अधिक किछु नाइ।
हेमन्ते तार समय हल एबे
पूर्ण करे आपनाके से देबे
रसेर भारे ताइ से अवनत।
*
पूजा गीत: रवीन्द्रनाथ ठाकुर
हिंदी काव्यानुवाद : संजीव
*
फूलों सा खिलता जब जीवन
पंखुरियां सौ-सौ झरतीं।
यह बसंत भी बनकर दाता
रहा झराता कुछ पत्ती।
संभवतः वह आज फला है
इसीलिये खाली हैं हाथ।
अपना सब रस करो निछावर
हे हेमंत! झुककर माथ।
***

जागो रे!
रवींद्रनाथ ठाकुर
*
हे मोर चित्त, पुण्य तीर्थे जागो रे धीरे.
एइ भारतेर महामानवेर सागर तीरे.
जागो रे धीरे.
हेथाय आर्य, हेथाय अनार्य, हेथाय द्राविड़-छीन.
शक-हूण डीके पठान-मोगल एक देहे होलो लीन.
पश्चिमे आजी खुल आये द्वार
सेथाहते सबे आने उपहार
दिबे आर निबे, मिलाबे-मिलिबे.
जाबो ना फिरे.
एइ भारतेर महामानवेर सागर तीरे.
*
हिंदी काव्यानुवाद: संजीव 'सलिल'
*
हे मेरे मन! पुण्य तीर्थ में जागो धीरे रे.
इस भारत के महामनुज सागर के तीरे रे..
जागो धीरे रे...
*
आर्य-अनार्य यहीं थे, आए यहीं थे द्राविड़-चीन.
हूण पठन मुग़ल शक, सब हैं एक देह में लीन..
खुले आज पश्चिम के द्वार,
सभी ग्रहण कर लें उपहार.
दे दो-ले लो, मिलो-मिलाओ
जाओ ना फिर रे...
*
इस भारत के महामनुज सागर के तीरे रे..
जागो धीरे रे...
९-५-२०१८
***
एक सुंदर बांग्ला गीत: सावन गगने घोर घनघटा
गर्मी से हाल बेहाल है। इंतजार है कब बादल आएं और बरसे जिससे तन - मन को शीतलता मिले। कुदरत के खेल कुदरत जाने, जब इन्द्र देव की मर्जी होगी तभी बरसेंगे। गर्मी से परेशान तन को शीतलता तब ही मिल पाएगी लेकिन मन की शीतलता का इलाज है हमारे पास। सरस गीत सुनकर भी मन को शीतलता दी जा सकती है ना तो आईये आज एक ऐसा ही सुन्दर गीत सुनकर आनन्द लीजिए।
यह सुन्दर बांग्ला गीत लिखा है भानु सिंह ने.. गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगौर अपनी प्रेम कवितायेँ भानुसिंह के छद्‍म नाम से लिखते थे। यह 'भानु सिंहेर पदावली' का हिस्सा है। इसे स्वर दिया है कालजयी कोकिलकंठी गायिका लता जी ने, हिंदी काव्यानुवाद किया है आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने.
बांगला गीत
सावन गगने घोर घन घटा निशीथ यामिनी रे
कुञ्ज पथे सखि कैसे जावब अबला कामिनी रे।
उन्मद पवने जमुना तर्जित घन घन गर्जित मेह
दमकत बिद्युत पथ तरु लुंठित थरहर कम्पित देह
घन-घन रिमझिम-रिमझिम-रिमझिम बरखत नीरद पुंज
शाल-पियाले ताल-तमाले निविड़ तिमिरमय कुञ्‍ज।
कह रे सजनी, ये दुर्योगे कुंजी निर्दय कान्ह
दारुण बाँसी काहे बजावत सकरुण राधा नाम
मोती महारे वेश बना दे टीप लगा दे भाले
उरहि बिलुंठित लोल चिकुर मम बाँध ह चम्पकमाले।
गहन रैन में न जाओ, बाला, नवल किशोर क पास
गरजे घन-घन बहु डरपावब कहे भानु तव दास।
हिंदी काव्यानुवाद
श्रावण नभ में बदरा छाये आधी रतिया रे
बाग़ डगर किस विधि जाएगी निर्बल गुइयाँ रे
मस्त हवा यमुना फुँफकारे गरज बरसते मेघ
दीप्त अशनि मग-वृक्ष लोटते थरथर कँपे शरीर
घन-घन रिमझिम-रिमझिम-रिमझिम बरसे जलद समूह
शाल-चिरौजी ताड़-तेजतरु घोर अंध-तरु व्यूह
सखी बोल रे!, यह अति दुष्कर कितना निष्ठुर कृष्ण
तीव्र वेणु क्यों बजा नाम ले 'राधा' कातर तृष्ण
मुक्ता मणि सम रूप सजा दे लगा डिठौना माथ
हृदय क्षुब्ध है, गूँथ चपल लट चंपा बाँध सुहाथ
रात घनेरी जाना मत तज कान्ह मिलन की आस
रव करते 'सलिलज' भय भारी, 'भानु' तिहारा दास
***
भावार्थ
सावन की घनी अँधेरी रात है, गगन घटाओं से भरा है और राधा ने ठान लिया है कि कुंजवन में कान्हा से मिलने जाएगी। सखी समझा रही है, मार्ग की सारी कठिनाइयाँ गिना रही है - देख कैसी उन्मत्त पवन चल रही है, राह में कितने पेड़ टूटे पड़े हैं, देह थर-थर काँप रही है। राधा कहती हैं - हाँ, मानती हूँ कि बड़ा कठिन समय है लेकिन उस निर्दय कान्हा का क्या करूँ जो ऐसी दारुण बांसुरी बजाकर मेरा ही नाम पुकार रहा है। जल्दी से मुझे सजा दे। कवि भानु प्रार्थना करते हैं ऐसी गहन रैन में नवलकिशोर के पास मत जाओ, बाला।
***
लघुकथा
सफेदपोश तबका
देश के विकास और निर्माण की कथा जैसी होती है वैसी दिखती नहीं, और जैसी दिखती है वैसी दिखती नहीं.... क्या कहा?, नहीं समझे?... कोइ बात नहीं समझाता हूँ.
किसी देश का विकास उत्पादन से होता है. उत्पादन सिर्फ दो वर्ग करते हैं किसान और मजदूर. उत्पादनकर्ता की समझ बढ़ाने के लिए शिक्षक, तकनीक हेतु अभियंता तथा स्वास्थ्य हेतु चिकित्सक, शांति व्यवस्था हेतु पुलिस तथा विवाद सुलझाने हेतु न्यायालय ये पाँच वर्ग आवश्यक हैं. शेष सभी वर्ग अनुत्पादक तथा अर्थ व्यवस्था पर भार होते हैं. -वक्ता ने कहा.
फिर तो नेता, अफसर, व्यापारी और बाबू अर्थव्यवस्था पर भार हुए? क्यों न इन्हें हटा दिया जाए?-किसी ने पूछा.
भार ही तो हुए. ये कितने भी अधिक हों हमेशा खुद को कम बताएँगे और अपने अधिकार, वेतन और सुविधाएं बढ़ाते जायेंगे. यह शोषक वर्ग प्रशासन के नाम पर पुलिस के सहारे सब पर लद जाता है. उत्पादक और उत्पादन-सहायक वर्ग का शोषण करता है. सारे काले कारनामे करने के बाद भी कहलाता है 'सफेदपोश तबका'.
***
एक आनुप्रसिक दोहा
*
दया-दफीना दे दिया, दस्तफ्शां को दान
दरा-दमामा दाद दे, दल्कपोश हैरान
(दरा = घंटा-घड़ियाल, दफीना = खज़ाना, दस्तफ्शां = विरक्त, दमामा = नक्कारा, दल्कपोश = भिखारी)
***
लघुकथा
धुँधला विवेक
संसार में अन्याय, अत्याचार और पीड़ा देखकर संदेह होता है कि ईश्वर नहीं है. जरा से बच्चे को इतनी बीमारियाँ, बेईमानों को सफलता, मेहनती की फाकाकशी देखकर जगता है या तो ईश्वर है ही नहीं या अविवेकी है? - एक ने कहा.
संसार में आनेवाले और संसार से जानेवाले हर जीव के कर्मों का खाता होता है. ठीक वैसे ही जैसे बैंक में घुसने और बैंक से निकलनेवाले का होता है. कोई खाली हाथ जाकर गड्डियाँ लाता है तो कोई गड्डी ले जाकर खाली हाथ निकलता है. हम इसे अंधेरगर्दी नहीं कहते क्योंकि हम जानते हैं कि कोई पहले जमा किया धन निकाल रहा है, कोई आगे के लिए जमा कर रहा है या कर्ज़ चुका रहा है. किसी जीव की कर्म पुस्तक हम नहीं जानते, इसलिए उसे मिल रहा फल हमें अनुचित प्रतीत होता है.
ईश्वर परम न्यायी और निष्पक्ष है तो वह करुणासागर नहीं हो सकता. कोई व्यक्ति कितना ही प्रसाद चढ़ाए या प्रार्थना करे, अपने कर्म फल से बच नहीं सकता. दूसरे ने समझाया.
ऐसा है तो हर धर्म में पुजारी वर्ग कर्मकांड और पूजा-पाठ क्यों करता है?
पेट पालने के लिए और यजमान को गलत राह पर ले जाता है किसी भी प्रकार राहत पाने की इच्छा और उसका धुंधला विवेक.
***
लघुकथा
मीठा-मीठा गप्प
*
आपको गंभीर बीमारी है. इसकी चिकित्सा लंबी और खर्चीली है. हम पूरा प्रयास करेंगे पर सफलता आपके शरीर द्वारा इलाज के प्रति की जाने वाली प्रतिक्रिया पर निर्भर है. तत्काल इलाज न प्रारंभ करने पर यह बीमारी बहुत तेजी से फैलती है. तब इसका कोई उपचार संभव नहीं होता. आप निराश न हों, अभिशाप में वरदान यह है की आरम्भ में ही चिकित्सा हो तो यह पूरी तरह ठीक हो जाती है. चिकित्सक अपनी तरफ से मेरा मनोबल बढ़ाने का पूरा - पूरा प्रयास कर रहा था.
मरता क्या न करता? किसी तरह धन की व्यवस्था की और चिकित्सा आरम्भ हुई. मझे ईश्वर से बहुत शिकायत थी कि मैंने कभी किसी का कुछ बुरा नहीं किया. फिर साथ ऐसा क्यों हुआ? अस्पताल में देखा मेरी अपेक्षा बहुत कम आर्थिक संसाधन वाले, बहुत कम आयु के बच्चे, कठिन चिकित्सा प्रक्रिया से गुजर रहे थे. मुझे उनके आगे अपनी पीड़ा बिसर जाती. उनके दुःख से अपना दुःख बहुत कम प्रतीत होता.
अस्पताल प्रांगण में स्थापित भगवान् की मूर्ति पर दृष्टि पड़ी तो लगा भगवान् पूछ रहे हैं मैं निर्मम हूँ या करूँ इसकी जाँच हर व्यक्ति अपने-अपने कष्ट के समय ही क्यों करता है, आनंद के समय क्यों नहीं करता? खुशियाँ तुम्हारे कर्म का परिणाम है तो कष्ट के लिए भी तुम्हारे कर्म ही कारण हैं न?. मैं कुछ पाती इसके पहले ही अपना पल्लू खिंचते देख पीछे मुड़कर देखा. कीमोथिरेपी कराकर बाहर आया वही छोटा सा बच्चा था जिसे मैंने वादा किया था कि बीमारी के कारण उसकी पढ़ाई की हानि नहीं हो इसलिए मुझसे पूछ लिया करे. एक हाथ में किताब लिए पूछ रहा था- इस मुहावरे का अर्थ बताइए 'मीठा-मीठा गप्प, कड़वा-कड़वा थू.'
९-५-२०१७
***
कवीन्द्र रवींद्रनाथ ठाकुर की एक रचना फिरिया जेओ ना प्रभु! का भावानुवाद:
(’नैवेद्य’ नामक कविता संग्रह में ५वीं कविता)
संजीव 'सलिल'
*
”जोदि ए आमार हृदोयदुआर
बोन्धो रोहे गो कोभु
द्वार भेंगे तुमि एशो मोर प्राणे
फिरिया जेओ ना प्रभु!
जोदि कोनो दिन ए बीणार तारे
तोबो प्रियनाम नाहि झोंकारे
दोया कोरे तुमि क्षणेक दाँडाओ
फिरिया जेओ ना प्रभु!
तोबो आह्वाने जोदि कोभु मोर
नाहि भेंगे जाय शुप्तिर घोर
बोज्रोबेदोने जागाओ आमाय
फिरिया जेओ ना प्रभु!
जोदि कोनो दिन तोमार आशोने
आर-काहारेओ बोशाई जोतोने
चिरोदिबोशेर हे राजा आमार
फिरिया जेओ ना प्रभु!"
*
रुद्ध अगर पाओ कभी, प्रभु! तोड़ो हृद -द्वार.
कभी लौटना तुम नहीं, विनय करो स्वीकार..
*
मन-वीणा-झंकार में, अगर न हो तव नाम.
कभी लौटना हरि! नहीं, लेना वीणा थाम..
*
सुन न सकूँ आवाज़ तव, गर मैं निद्रा-ग्रस्त.
कभी लौटना प्रभु! नहीं, रहे शीश पर हस्त..
*
हृद-आसन पर गर मिले, अन्य कभी आसीन.
कभी लौटना प्रिय! नहीं, करना निज-आधीन..
*
मुक्तक :
*
अब तक सुना था, दिखा बाड़ खेत खा गयी
चंदा को अमावास की रात खूब भा गयी
चाहा था न्याय ने कि उसे जेल ही मिले
कुछ जम गया जुगाड़ उसे बेल भा गयी
*
कितना शरीफ है कि कुचल भूल गया है
पी ली तो क्या, दुश्मन ने अधिक तूल दिया है
झूठे गवाह लाये उसका पेट पालने-
फूल रौंद भोंक उसे शूल दिया है
*
कितने शरीफ हो न बताने की बात है
कैसे भी हो गुनाह छिपाने की बात है
दुनिया से बच गये भी तो देगा सजा खुदा
आईने से भी आँख चुराने की बात है
९.५.२०१५
***
एक रचना:
संजीव
.
जैसा किया है तूने
वैसा ही तू भरेगा
.
कभी किसी को धमकाता है
कुचल किसी को मुस्काता है
दुर्व्यवहार नायिकाओं से
करता, दानव बन जाता है
मार निरीह जानवर हँसता
कभी न किंचित शर्माता है
बख्शा नहीं किसी को
कब तक बोल बचेगा
.
सौ सुनार की भले सुहाये
एक लुहार जयी हो जाए
अगर झूठ पर सच भारी हो
बददिमाग रस्ते पर आये
चक्की पीस जेल में जाकर
ज्ञान-चक्षु शायद खुल जाए
साये से अपने खुद ही
रातों में तू डरेगा
६.५.२०१५
***
दोहा सलिला:
*
प्रहसन मंचित हो गया, बजीं तालियाँ खूब
समरथ की जय हो गयी, पीड़ित रोये डूब
.
बरसों बाद सजा मिली, गये न पल को जेल
न्याय लगा अन्याय सा, पल में पायी बेल
.
दोष न कारों का तनिक, दोषी है फुटपाथ
जो कुचले-मारे गये, मिले झुकाए माथ
.
छद्म तर्क से सच छिपा, ज्यों बादल से चाँद
दोषी गरजे शेर सा, पीड़ित छिपता मांद
.
नायक कारें ले करें, जनसंख्या कंट्रोल
दिल पर घूँसा मारता, गायक कडवा बोल
.
पट्टी बाँधे आँख पर, तौल रही है न्याय
अजब व्यवस्था धनी की, जय- निर्धन निरुपाय
.
मोटी-मोटी फीस है, खोटे-खोते तर्क
दफन सत्य को कर रहे, पिला झूठ का अर्क
.
दौलत की जय बोलना, दुनिया का दस्तूर
एकांगी जब न्याय हो लगे वधिक सा क्रूर
.
तिल को ताड़ बना दिया, और ताड़ को तिल
रुपयों की खनकार से घायल निर्धन-दिल
९.५.२०१५
***
नवगीत:
*
जो 'फुट' पर चलते
पलते हैं 'पाथों' पर
उनका ही हक है सारे
'फुटपाथों' पर
*
बेलाइसेंसी कारोंवालों शर्म करो
मदहोशी में जब कोई दुष्कर्म करो
माफी मांगों, सजा भोग लो आगे आ
जिनको कुचला उन्हें पाल कुछ धर्म करो
धन-दौलत पर बहुत अधिक इतराओ मत
बहुत अधिक मोटा मत अपना चर्म करो
दिन भर मेहनत कर
जो थककर सोते हैं
पड़ते छाले उनके
हाथों-पांवों पर
जो 'फुट' पर चलते
पलते हैं 'पाथों' पर
उनका ही हक है सारे
'फुटपाथों' पर
*
महलों के अंदर रहकर तुम ऐश करो
किसने दिया तुम्हें हक़ ड्राइविंग रैश करो
येन-केन बचने के लिये वकील लगा
झूठे लाओ गवाह खर्च नित कैश करो
चुल्लू भर पानी में जाकर डूब मारो
सत्य-असत्य कोर्ट में मत तुम मैश करो
न्यायालय में न्याय
तनिक हो जाने दो
जनगण क्यों चुप्पी
साधे ज़ज़्बातों पर
जो 'फुट' पर चलते
पलते हैं 'पाथों' पर
उनका ही हक है सारे
'फुटपाथों' पर
*
स्वार्थ सध रहे जिनके वे ही संग जुटे
उनकी सोचो जिनके जीवन-ख्वाब लुटे
जो बेवक़्त बोलते कड़वे बोल यहाँ
जनता को मिल जाएँ अगर बेभाव कुटें
कहे शरीयत जान, जान के बदले दो
दम है मंज़ूर करो, मसला सुलटे
हो मासूम अगर तो
माँगो दण्ड स्वयं
लज्जित होना सीखो
हुए गुनाहों पर
जो 'फुट' पर चलते
पलते हैं 'पाथों' पर
उनका ही हक है सारे
'फुटपाथों' पर
८-५-२०१५
***
छंद सलिला:
मोहन छंद
*
छंद-लक्षण: जाति रौद्राक, प्रति चरण मात्रा २३ मात्रा, यति ५-६-६-६, चरणांत गुरु लघु लघु गुरु
लक्षण छंद:
गोपियाँ / मोहन के / संग रास / खेल रहीं
राधिका / कान्हा के / रंग रंगी / मेल रहीं
पाँच पग / छह छह छह / सखी रखे / साथ-साथ
कहीं गुरु / लघु, लघु गुुरु / कहीं, गहें / हाथ-हाथ
उदाहरण:
१. सुरमयी / शाम मिले / सजन शर्त / हार गयी
खिलखिला / लाल हुई / चंद्र देख / भाग गयी
रात ने / जाल बिछा / तारों के / दीप जला
चाँद को / मोह लिया / हवा बही / हाय छला
२. कभी खुशी / गम कभी / कभी छाँव / धूप कभी
नयन नम / करो न मन / नमन करो / आज अभी
कभी तम / उजास में / आस प्यास / साथ मिले
कभी हँस / प्रयास में / आम-खास / हाथ मिले
३. प्यार में / हार जीत / जीत हार / प्यार करो
रात भी / दिवस लगे / दिवस रात / प्यार वरो
आह भी / वाह लगे / डाह तजो / चाह करो
आस को / प्यास करो / त्रास सहो / हास करो
***
छंद सलिला:
संपदा छंद
*
छंद-लक्षण: जाति रौद्राक, प्रति चरण मात्रा २३ मात्रा, यति ११-१२, चरणांत लघु गुरु लघु (जगण/पयोधर)
लक्षण छंद:
शक्ति-शारदा-रमा / मातृ शक्तियाँ सप्राण
सदय हुईं मनुज पर / पीड़ा से मुक्त प्राण
ग्यारह-बारह सुयति / भाव सरस लय निनाद
मधुर छंद संपदा / अंत जगण का प्रसाद
उदाहरण:
१. मीत! गढ़ें नव रीत / आओ! करें शुचि प्रीत
मौन न चाहें और / गायें मधुरतम गीत
मन को मन से जोड़ / समय से लें हम होड़
दुनिया माने हार / सके मत लेकिन तोड़
२. जनता से किया जो / वायदा न भूल आज
खुद ही बनाया जो / कायदा न भूल आज
जनगण की चाह जो / पूरी कर वाह वाह
हरदम हो देश का / फायदा न भूल आज
३. मन मसोसना न मन / जो न सही, वह न ठान
हैं न जन जो सज्जन / उनको मत मीत मान
धन-पद-बल स्वार्थ का / कलम कभी कर न गान-
निर्बल के परम बल / राम सत्य 'सलिल' मान.
***
बाङ्ग्ला-हिंदी भाषा सेतु:
पूजा गीत
रवीन्द्रनाथ ठाकुर
*
जीवन जखन छिल फूलेर मतो
पापडि ताहार छिल शत शत।
बसन्ते से हत जखन दाता
रिए दित दु-चारटि तार पाता,
तबउ जे तार बाकि रइत कत
आज बुझि तार फल धरेछे,
ताइ हाते ताहार अधिक किछु नाइ।
हेमन्ते तार समय हल एबे
पूर्ण करे आपनाके से देबे
रसेर भारे ताइ से अवनत।
*
पूजा गीत: रवीन्द्रनाथ ठाकुर
हिंदी काव्यानुवाद : संजीव
*
फूलों सा खिलता जब जीवन
पंखुरियां सौ-सौ झरतीं।
यह बसंत भी बनकर दाता
रहा झराता कुछ पत्ती।
संभवतः वह आज फला है
इसीलिये खाली हैं हाथ।
अपना सब रस करो निछावर
हे हेमंत! झुककर माथ।
९.५.२०१४
***
गीत:
*
आन के स्तन न होते, किस तरह तन पुष्ट होता
जान कैसे जान पाती, मान कब संतुष्ट होता?
*
पय रहे पी निरन्तर विष को उगलते हम न थकते
लक्ष्य भूले पग भटकते थक गये फ़िर भी न थकते
मौन तकते हैं गगन को कहीँ क़ोई पथ दिखा दे
काश! अपनापन न अपनोँ से कभी भी रुष्ट होता
*
पय पिया संग-संग अचेतन को मिली थी चेतना भी
पयस्वनि ने कब बतायी उसे कैसी वेदना थी?
प्यार संग तकरार या इंकार को स्वीकार करना
काश! हम भी सीख पाते तो मनस परिपुष्ट होता
*
पय पिला पाला न लेकिन मोल माँगा कभी जिसने
वंदनीया है वही, हो उऋण उससे कोई कैसे?
आन
भी वह, मान भी वह, जान भी वह, प्राण भी वह
खान ममता की न होती, दान कैसे तुष्ट होता?
६-५-२०१४
***
दोहा गाथा ४-
शब्द ब्रह्म उच्चार
संजीव
*
अजर अमर अक्षर अजित, निराकार साकार
अगम अनाहद नाद है, शब्द ब्रह्म उच्चार
*
सकल सुरासुर सामिनी, सुणि माता सरसत्ति
विनय करीन इ वीनवुँ, मुझ तउ अविरल मत्ति
सुरासुरों की स्वामिनी, सुनिए माँ सरस्वति
विनय करूँ सर नवाकर, निर्मल दीजिए मति
संवत् १६७७ में रचित ढोला मारू दा दूहा से उद्धृत माँ सरस्वती की वंदना के उक्त दोहे से इस पाठ का श्रीगणेश करते हुए विसर्ग का उच्चारण करने संबंधी नियमों की चर्चा करने के पूर्व यह जान लें कि विसर्ग स्वतंत्र व्यंजन नहीं है, वह स्वराश्रित है। विसर्ग का उच्चार विशिष्ट होने के कारण वह पूर्णतः शुद्ध नहीं लिखा जा सकता। विसर्ग उच्चार संबंधी नियम निम्नानुसार हैं-
१. विसर्ग के पहले का स्वर व्यंजन ह्रस्व हो तो उच्चार त्वरित "ह" जैसा तथा दीर्घ हो तो त्वरित "हा" जैसा करें।
२. विसर्ग के पूर्व "अ", "आ", "इ", "उ", "ए" "ऐ", या "ओ" हो तो उच्चार क्रमशः "ह", "हा", "हि", "हु", "हि", "हि" या "हो" करें।
यथा केशवः =केशवह, बालाः = बालाह, मतिः = मतिहि, चक्षुः = चक्षुहु, भूमेः = भूमेहि, देवैः = देवैहि, भोः = भोहो आदि।
३. पंक्ति के मध्य में विसर्ग हो तो उच्चार आघात देकर "ह" जैसा करें।
यथा- गुरुर्ब्रम्हा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः.
४. विसर्ग के बाद कठोर या अघोष व्यंजन हो तो उच्चार आघात देकर "ह" जैसा करें।
यथा- प्रणतः क्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नमः.
५. विसर्ग पश्चात् श, ष, स हो तो विसर्ग का उच्चार क्रमशः श्, ष्, स् करें।
यथा- श्वेतः शंखः = श्वेतश्शंखः, गंधर्वाःषट् = गंधर्वाष्षट् तथा
यज्ञशिष्टाशिनः संतो = यज्ञशिष्टाशिनस्संतो आदि।
६. "सः" के बाद "अ" आने पर दोनों मिलकर "सोऽ" हो जाते हैं।
यथा- सः अस्ति = सोऽस्ति, सः अवदत् = सोऽवदत्.
७. "सः" के बाद "अ" के अलावा अन्य वर्ण हो तो "सः" का विसर्ग लुप्त हो जाता है।
८. विसर्ग के पूर्व अकार तथा बाद में स्वर या मृदु व्यंजन हो तो अकार व विसर्ग मिलकर "ओ" बनता है।
यथा- पुत्रः गतः = पुत्रोगतः.
९. विसर्ग के पूर्व आकार तथा बाद में स्वर या मृदु व्यंजन हो तो विसर्ग लुप्त हो जाता है।
यथा- असुराःनष्टा = असुरानष्टा .
१०. विसर्ग के पूर्व "अ" या "आ" के अलावा अन्य स्वर तथा ुसके बाद स्वर या मृदु व्यंजन हो तो विसर्ग के स्थान पर "र" होगा।
यथा- भानुःउदेति = भानुरुदेति, दैवैःदत्तम् = दैवैर्दतम्.
११. विसर्ग के पूर्व "अ" या "आ" को छोड़कर अन्य स्वर और उसके बाद "र" हो तो विसर्ग के पूर्व आनेवाला स्वर दीर्घ हो जाता है।
यथा- ॠषिभिःरचितम् = ॠषिभी रचितम्, भानुःराधते = भानूराधते, शस्त्रैःरक्षितम् = शस्त्रै रक्षितम्।
उच्चार चर्चा को यहाँ विराम देते हुए यह संकेत करना उचित होगा कि उच्चार नियमों के आधार पर ही स्वर, व्यंजन, अक्षर व शब्द का मेल या संधि होकर नये शब्द बनते हैं। दोहाकार को उच्चार नियमों की जितनी जानकारी होगी वह उतनी निपुणता से निर्धारित पदभार में शब्दों का प्रयोग कर अभिनव अर्थ की प्रतीति करा सकेगा। उच्चार की आधारशिला पर हम दोहा का भवन खड़ा करेंगे।
दोहा का आधार है, ध्वनियों का उच्चार ‌
बढ़ा शब्द भंडार दे, भाषा शिल्प सँवार ‌ ‌
शब्दाक्षर के मेल से, प्रगटें अभिनव अर्थ ‌
जिन्हें न ज्ञात रहस्य यह, वे कर रहे अनर्थ ‌ ‌
गद्य, पद्य, पिंगल, व्याकरण और छंद
गद्य पद्य अभिव्यक्ति की, दो शैलियाँ सुरम्य ‌
बिंब भाव रस नर्मदा, सलिला सलिल अदम्य ‌ ‌
जो कवि पिंगल व्याकरण, पढ़े समझ हो दक्ष ‌
बिरले ही कवि पा सकें, यश उसके समकक्ष ‌ ‌
कविता रच रसखान सी, दे सबको आनंद ‌
रसनिधि बन रसलीन कर, हुलस सरस गा छंद ‌ ‌
भाषा द्वारा भावों और विचारों की अभिव्यक्ति की दो शैलियाँ गद्य तथा पद्य हैं। गद्य में वाक्यों का प्रयोग किया जाता है जिन पर नियंत्रण व्याकरण करता है। पद्य में पद या छंद का प्रयोग किया जाता है जिस पर नियंत्रण पिंगल करता है।
कविता या पद्य को गद्य से अलग तथा व्यवस्थित करने के लिये कुछ नियम बनाये गये हैं जिनका समुच्चय "पिंगल" कहलाता है। गद्य पर व्याकरण का नियंत्रण होता है किंतु पद्य पर व्याकरण के साथ पिंगल का भी नियंत्रण होता है।
छंद वह सांचा है जिसके अनुसार कविता ढलती है। छंद वह पैमाना है जिस पर कविता नापी जाती है। छंद वह कसौटी है जिस पर कसकर कविता को खरा या खोटा कहा जाता है। पिंगल द्वारा तय किये गये नियमों के अनुसार लिखी गयी कविता "छंद" कहलाती है। वर्णों की संख्या एवं क्रम, मात्रा, गति, यति आदि के आधार पर की गयी रचना को छंद कहते हैं। छंद के तीन प्रकार मात्रिक, वर्णिक तथा मुक्त हैं। मात्रिक व वर्णिक छंदों के उपविभाग सममात्रिक, अर्ध सममात्रिक तथा विषम मात्रिक हैं।
दोहा अर्ध सम मात्रिक छंद है। मुक्त छंद में रची गयी कविता भी छंदमुक्त या छंदहीन नहीं होती।
छंद के अंग
छंद की रचना में वर्ण, मात्रा, पाद, चरण, गति, यति, तुक तथा गण का विशेष योगदान होता है।
वर्ण- किसी मूलध्वनि को व्यक्त करने हेतु प्रयुक्त चिन्हों को वर्ण या अक्षर कहते हैं, इन्हें और विभाजित नहीं किया जा सकता।
मात्रा- वर्ण के उच्चारण में लगे कम या अधिक समय के आधार पर उन्हें ह्रस्व, लघु या छोटा‌ तथा दीर्घ या बड़ा ऽ कहा जाता है।
इनकी मात्राएँ क्रमशः एक व दो गिनी जाती हैं।
उदाहरण- गगन = ।‌+। ‌+। ‌ = ३, भाषा = ऽ + ऽ = ४.
पाद- पद, पाद तथा चरण इन शब्दों का प्रयोग कभी समान तथा कभी असमान अर्थ में होता है। दोहा के संदर्भ में पद का अर्थ पंक्ति से है। दो पंक्तियों के कारण दोहा को दो पदी, द्विपदी, दोहयं, दोहड़ा, दूहड़ा, दोग्धक आदि कहा गया। दोहा के हर पद में दो, इस तरह कुल चार चरण होते हैं। प्रथम व तृतीय चरण विषम तथा द्वितीय व चतुर्थ चरण सम कहलाते हैं।
गति- छंद पठन के समय शब्द ध्वनियों के आरोह व अवरोह से उत्पन्न लय या प्रवाह को गति कहते हैं। गति का अर्थ काव्य के प्रवाह से है। जल तरंगों के उठाव-गिराव की तरह शब्द की संरचना तथा भाव के अनुरूप ध्वनि के उतार चढ़ाव को गति या लय कहते हैं। हर छंद की लय अलग अलग होती है। एक छंद की लय से अन्य छंद का पाठ नहीं किया जा सकता।
यति- छंद पाठ के समय पूर्व निर्धारित नियमित स्थलों पर ठहरने या रुकने के स्थान को यति कहा जाता है। दोहा के दोनों चरणों में १३ व ११ मात्राओं पर अनिवार्यतः यति होती है। नियमित यति के अलावा भाव या शब्दों की आवश्यकता अनुसार चजण के बीच में भी यति हो सकती है। अल्प या अर्ध विराम यति की सूचना देते है।
तुक- दो या अनेक चरणों की समानता को तुक कहा जाता है। तुक से काव्य सौंदर्य व मधुरता में वृद्धि होती है। दोहा में सम चरण अर्थात् दूसरा व चौथा चरण सम तुकांती होते हैं।
गण- तीन वर्णों के समूह को गण कहते हैं। गण आठ प्रकार के हैं। गणों की मात्रा गणना के लिये निम्न सूत्र में से गण के पहले अक्षर तथा उसके आगे के दो अक्षरों की मात्राएँ गिनी जाती हैं। गणसूत्र- यमाताराजभानसलगा।
क्रम गण का नाम अक्षर मात्राएँ
१. यगण यमाता ‌ ऽऽ = ५
२. मगण मातारा ऽऽऽ = ६
३. तगण ताराज ऽऽ ‌ = ५
४. रगण राजभा ऽ ‌ ऽ = ५
५. जगण जभान ‌ ऽ ‌ = ४
६. भगण भानस ऽ ‌ ‌ = ४
७. नगण नसल ‌ ‌ ‌ = ३
८. सगण सलगा ‌ ‌ ऽ = ४
उदित उदय गिरि मंच पर , रघुवर बाल पतंग । ‌ - प्रथम पद
प्रथम विषम चरण यति द्वितीय सम चरण यति
विकसे संत सरोज सब , हरषे लोचन भ्रंग ‌‌‌ ‌ । - द्वितीय पद
तृतीय विषम चरण यति चतुर्थ सम चरण यति
आगामी पाठ में बिम्ब, प्रतीक, भाव, शैली, संधि, अलंकार आदि काव्य तत्वों के साथ दोहा के लक्षण व वैशिष्ट्य की चर्चा होगी.
९.५.२०१३
***
मुक्तिका:
तुम क्या जानो
*
तुम क्या जानो कितना सुख है दर्दों की पहुनाई में.
नाम हुआ करता आशिक का गली-गली रुसवाई में..
उषा और संझा की लाली अनायास ही साथ मिली.
कली कमल की खिली-अधखिली नैनों में, अंगड़ाई में..
चने चबाते थे लोहे के, किन्तु न अब वे दाँत रहे.
कहे बुढ़ापा किससे क्या-क्या कर गुजरा तरुणाई में..
सरस परस दोहों-गीतों का सुकूं जान को देता है.
चैन रूह को मिलते देखा गजलों में, रूबाई में..
'सलिल' उजाला सभी चाहते, लेकिन वह खलता भी है.
तृषित पथिक को राहत मिलती अमराई - परछाँई में
९.५.२०११
***
शंका समाधान:
उसने क्यों सिरजा मुझे, मकसद जाने कौन?
जिससे पूछा वही चुप, मैं खुद तोडूँ मौन.
*
मकसद केवल एक है, मिट्टी ले आकार.
हर कंकर शंकर बने, नियति करे स्वीकार..
हाथों की रेखा कहे, मिटा न मुझको मीत.
अन्यों से ज्यादा बड़ी, खींच- सही है रीत..
***
दोहा दुनिया
*
पत्नी ने तन-मन लुटा, किया तुझे स्वीकार.
तू भी क्या उस पर कभी सब कुछ पाया वार?
*
अगर नहीं तो यह बता, किसका कितना दोष.
प्यार न क्यों दे-ले सका, अब मत हो मदहोश..
*
बने-बनाया कुछ नहीं, खुद जाते हम टूट.
दोष दे रहे और को, बोल रहे हैं झूठ.
*
वह क्यों तोड़ेगा कभी, वह है रचनाकार.
चल मिलकर कुछ रचें हम, शून्य गहे आकार..
*
अमर नाथ वह मर्त्य हम, व्यर्थ बनते मूर्ति
पूज रहे बस इसलिए, करे स्वार्थ की पूर्ति
*

छिपी वाह में आह है, इससे बचना यार.
जग-जीवन में लुटाना, बिना मोल नित प्यार.
*
वह तो केवल बनाता, टूट रहे हम आप.
अगर न टूटें तो कहो, कैसें सकते व्याप?
*
बिंदु सिन्धु हो बिखरकर, सिन्धु सिमटकर बिंदु.
तारे हैं अगणित मगर, सिर्फ एक है इंदु..
*
जो पैसों से कर रहा, तू वह है व्यापार.
माँ की ममता का दिया, सिला कभी क्या यार.
*
बहिना ने तुझको दिया, प्रतिपल नेह-दुलार.
तू दे पाया क्या उसे?, कर ले तनिक विचार.

***
विचारणीय : अगर न होता काश तो.......
*
काश न होता सलिल' तो, ना होता अवकाश.
कहिये कैसे देखते हम, सिर पर आकाश?.
रवि शशि दीपक बल्ब भी, हो जाते बेकार-
गहन तिमिर में किस तरह, मिलता कहें प्रकाश?.
धरना देता अतिथि जब, अनचाहा चढ़ शीश.
मन ही मन कर जोड़कर, कहते अब जा काश..
९-५-२०१०
***