रचना -
मैँ अब क्या लिख रहा हूँ
-महेश चंद्र द्विवेदी
*
वह मुझसे अक्सर पूछ देते हैं कि
मैँ अब क्या लिख रहा हूँ?
किस कविता या लम्बी कहानी का
सिलसिला लिख रहा हूँ?
इक राख हुए दिल मेँ बुझे शोलोँ को
वह अक्सर कुरेद देते हैं
ढूंढने लगते हैं कोई छिपी चिनगारी
क्यूंकि मैं बुझा दिख रहा हूँ.
ठंडी पड़ी जिगर की आग मेँ बची-खुची
तपिश खोजते, तलाशते हैँ
हिलाते डुलाते है मेरे सुषुप्त बदन को
शायद उन्हेँ मरा दिख रहा हूँ.
कैसे कहूँ उनसे कि किस पर लिखूँ
और किसके लिये लिखूँ मैँ
जीने का सबब ही लुट चुका है, बस
लेखक का मर्सिया लिख रहा हूँ.
*
प्रति रचना-
लिखो क्यों न सोहर?
*
भुला मर्सिया अब
लिखो क्यों न सोहर?
*
निराशा की बातें बहुत हो चुकी हैं
हताशा की घातें पतन बो चुकी हैं
हुलासा-नवाशा पुलक टेरती हैं
सकल कालिमा बारिशें धो चुकी हैं
लिए लालिमा
नील अंबर में ऊषा
कहे जाग जाओ!
मिटी है थकन हर
भुला मर्सिया अब
लिखो क्यों न सोहर?
*
शिशु सूर्य के साथ पग कुछ बढ़ाओ
दुपहरी कड़ी उससे आँखें मिलाओ
संझा से साँझा करो चाय प्याली
निशा को सुनहरे सपने दिखाओ
कोशिश की ओढ़ो
'सलिल' तान दोहर
भुला मर्सिया अब
लिखो क्यों न सोहर?
*
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